Monday, February 28, 2011

wah chidhata kona


चेहरे पर फैल आए बालो को मैंने  ,

अपनी अलसाई उंगलियो से हटाया था,

कुछ समय खुद मे ही खोने के बाद

जब तुम्हारी तरफ़ देखा तो,

तुम अभी भी सो रहे थे,

तुम्हे छुने की कोशिश मे,

मैने हाथ भी बढ़ाया था,

पर तुम तब भी सो रहे थे,

कुछ खाली सा लगा मुझे मुझमे

तटोटलने का मन भी हुआ

शायद कोई कोना कहीं बंद पड़ा हो

और मेरे ढूँढने पर मिल जाए वो,

पर कहीं कुछ अभी भी सूना था

एक झुंझलाहट सी हुई खुद पर

वेहम है शायद मेरा

कह कर खुद को झिड़क दिया मैने

मगर वह खाली कोना अभी भी चिढ़ा रहा था

हिम्मत बटोर कर मैं उस कोने से ही पूछा,

क्या चाहिए तुझे?

अब और क्या बाकी है?

उसने तनिक दबी हँसी से कहा,

ये मूरख किसे बनाती हो?

जिसे छुकर उसके होने का यकीन खुद को दिलाती हो,

क्या सच मे उसे ही पाना चाहती हो?

लगा की चोरी पकड़ ली गयी हो मेरी,

हर स्पर्श मे मैने जो महसूस किया

क्या सिर्फ़ तुम्हारी आकुलता नही थी?

एक ज़रूरत,

उसके आगे सब शून्य था

और यही शून्य अब उस कोने मे जा बैठा था

Friday, January 14, 2011

बताने वाली बातें

बहुत दिनों के बाद आज फिर से कलम उठाई है,
डायरी के कवर से चिपकी हुई धूल कि परत हटाई है,
रंग कुछ पीला पड़ गया है पन्नो का,
नयेपन कि खुशबू भी गायब है,
सोच रही हूँ क्या लिखूँ
कोई कहानी, कविता या फिर सिर्फ चंद लाइनें,
कहने के लिए शब्द तो बहुत हैं
पर कहूँ क्या
ये अभी तक समझ नहीं पायी हूँ,
कोई पुराना धागा फिर से जोड़ा है आज,
कुछ अखब़ार भी हटाये हैं
तसवीरें भी बदली हैं कमरे की,
पर इनमे कहने के लिए क्या ख़ास है?
बताने वाली बातें कुछ और होती हैं शायद,
डायरी मुझे अभी भी देख रही है टुक टुक,
और कलम मेरे हाथ में अभी भी रुकी हुई है
एक बार फिर मैं सब तरफ देखती हूँ,
वही किताबें , अखबार,  तसवीरें,
और चाय के कुछ खाली कप,
पर बताने वाली बातें कुछ और होती हैं शायद.

Wednesday, December 2, 2009

kaali ki murti

संसार की भयानकता का
एक प्रतिबिम्ब दिखाती,
दूसरों को एक डर का एहसास दिलाती,
अपनी पूरी विभत्सता के साथ,
मुँह चिढाती,
वह मूर्ति,
वह काली की मूर्ति.
हम पर हँसती
और हमें  बाध्य करती,
उसके सामने रोने को,
गिडगिडाने को,
वह मूर्ति,
हाँ वही, काली की मूर्ति.
ख़ुद अपनी ही पराजय का उत्सव मानते हम,
उस पर ग्यारह रुपये का चढ़ावा चढाते हम ,
और आह्लादित मुखमंडल के पीछे,
एक विकृत चेहरा छिपाते हम.
ख़ुद को बहलाते
" माँ ने हमारी सुन ली है"
ख़ुद नहीं जानते, 
नहीं खोजते,
और न ही पूछते
की "कौन है यह ,
क्यूँ है यह?"
शायद जानते हैं,
पर कह नहीं पाते हम.
कि कुछ और नहीं,
हमारी हार का आइना है यह,
उसके गले में मुंडमाला
देखते हैं,
रक्त टपकती तलवार,
और सिर का
निरीक्षण करते हैं,
ऊपर का भक्ति भाव
अन्दर का डर
ख़ुद ही पीते हैं.
मालूम   है ,
वह सर हमारे अपने ही हैं
वह रक्त हमारा विश्वास,
और शायद वह तलवार हमारे ही लिए बनी है.
फिर भी,
गर्व से मुस्कुराते हम,
और अपनी ही मूर्खता पर
मन  ही मन
ठहाके लगते हम,
क्या नहीं जानते की वह एक मूर्ति है
पूरी भयानकता के साथ
हमारे अस्तित्व को झुठलाती,
मुँह चिढाती ,
वह काली की मूर्ति. 

Friday, November 27, 2009

aye khuda

ऐ ख़ुदा, तुने जो हर शख्श के साथ परछाइयाँ लगा दीं हैं
भूले से भी कोई ख़ुद को भूल नहीं पाता
दस्तख़त आज भी मिल जाते हैं कुछ पन्नो पर,
ये वक़्त क्यों अपने निशां साथ नहीं ले जाता ,
आईने को मेरा चेहरा कुछ  अज़नबी सा लगता है,
क़ाश तेरा वजूद मेरे साए से मिट जाता.

Saturday, November 21, 2009

If

if only i fly away
from this jungle civilized
would u not try me bring back
to the world of yours behind?
if only i say something
that not ur heart nor mind
may find any logic to agree
would u not to me be kind?
faces may prove deceptive
to you and me my friend!
but the soul"s voice remind still
that this is not the end..