संसार की भयानकता का
एक प्रतिबिम्ब दिखाती,
दूसरों को एक डर का एहसास दिलाती,
अपनी पूरी विभत्सता के साथ,
मुँह चिढाती,
वह मूर्ति,
वह काली की मूर्ति.
हम पर हँसती
और हमें बाध्य करती,
उसके सामने रोने को,
गिडगिडाने को,
वह मूर्ति,
हाँ वही, काली की मूर्ति.
ख़ुद अपनी ही पराजय का उत्सव मानते हम,
उस पर ग्यारह रुपये का चढ़ावा चढाते हम ,
और आह्लादित मुखमंडल के पीछे,
एक विकृत चेहरा छिपाते हम.
ख़ुद को बहलाते
" माँ ने हमारी सुन ली है"
ख़ुद नहीं जानते,
नहीं खोजते,
और न ही पूछते
की "कौन है यह ,
क्यूँ है यह?"
शायद जानते हैं,
पर कह नहीं पाते हम.
कि कुछ और नहीं,
हमारी हार का आइना है यह,
उसके गले में मुंडमाला
देखते हैं,
रक्त टपकती तलवार,
और सिर का
निरीक्षण करते हैं,
ऊपर का भक्ति भाव
अन्दर का डर
ख़ुद ही पीते हैं.
मालूम है ,
वह सर हमारे अपने ही हैं
वह रक्त हमारा विश्वास,
और शायद वह तलवार हमारे ही लिए बनी है.
फिर भी,
गर्व से मुस्कुराते हम,
और अपनी ही मूर्खता पर
मन ही मन
ठहाके लगते हम,
क्या नहीं जानते की वह एक मूर्ति है
पूरी भयानकता के साथ
हमारे अस्तित्व को झुठलाती,
मुँह चिढाती ,
वह काली की मूर्ति.
Wednesday, December 2, 2009
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बढियां लिखा है!
ReplyDeletethank u sir.. :-)
ReplyDeleteIf I am not wrong then the same poeM you had recited at graduation freshers party @ BHU....
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