Monday, February 28, 2011

wah chidhata kona


चेहरे पर फैल आए बालो को मैंने  ,

अपनी अलसाई उंगलियो से हटाया था,

कुछ समय खुद मे ही खोने के बाद

जब तुम्हारी तरफ़ देखा तो,

तुम अभी भी सो रहे थे,

तुम्हे छुने की कोशिश मे,

मैने हाथ भी बढ़ाया था,

पर तुम तब भी सो रहे थे,

कुछ खाली सा लगा मुझे मुझमे

तटोटलने का मन भी हुआ

शायद कोई कोना कहीं बंद पड़ा हो

और मेरे ढूँढने पर मिल जाए वो,

पर कहीं कुछ अभी भी सूना था

एक झुंझलाहट सी हुई खुद पर

वेहम है शायद मेरा

कह कर खुद को झिड़क दिया मैने

मगर वह खाली कोना अभी भी चिढ़ा रहा था

हिम्मत बटोर कर मैं उस कोने से ही पूछा,

क्या चाहिए तुझे?

अब और क्या बाकी है?

उसने तनिक दबी हँसी से कहा,

ये मूरख किसे बनाती हो?

जिसे छुकर उसके होने का यकीन खुद को दिलाती हो,

क्या सच मे उसे ही पाना चाहती हो?

लगा की चोरी पकड़ ली गयी हो मेरी,

हर स्पर्श मे मैने जो महसूस किया

क्या सिर्फ़ तुम्हारी आकुलता नही थी?

एक ज़रूरत,

उसके आगे सब शून्य था

और यही शून्य अब उस कोने मे जा बैठा था

2 comments:

  1. बहुत खूबसूरत भाव....
    सुंदर रचना....
    आप भी आइए...

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  2. बहुत अच्छी पोस्ट, शुभकामना, मैं सभी धर्मो को सम्मान देता हूँ, जिस तरह मुसलमान अपने धर्म के प्रति समर्पित है, उसी तरह हिन्दू भी समर्पित है. यदि समाज में प्रेम,आपसी सौहार्द और समरसता लानी है तो सभी के भावनाओ का सम्मान करना होगा.
    यहाँ भी आये. और अपने विचार अवश्य व्यक्त करें ताकि धार्मिक विवादों पर अंकुश लगाया जा सके., हो सके तो फालोवर बनकर हमारा हौसला भी बढ़ाएं.
    मुस्लिम ब्लोगर यह बताएं क्या यह पोस्ट हिन्दुओ के भावनाओ पर कुठाराघात नहीं करती.

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